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Saturday, 22 May 2021

महाजनपदों का निर्माण

    उत्तर-पूर्व भारत की प्राचीन जनजातीय जीवन-प्रणाली में नवीन तकनीक जैसे - लौह तकनीक पर आधारित नवीन कृषि-प्राणाली के कारण अधिक उत्पादन अधिशेष प्राप्त होने लगा। लौह तकनीक ने लोगों के भौतिक जीवन में बड़ा परिवर्तन उत्पन्न कर दिया तथा इससे स्थाई जीवन-यापन की प्रवृत्ति सुदृढ़ हो गयी। कृषि]उद्योग]व्यापार-वाणिज्य आदि के विकास ने प्राचीन जनजातीय व्यवस्था को जर्जर बना दिया तथा छोटे-छोटे जनों का स्थान जनपदों ने ग्रहण कर लिया। छठी शताब्दी ई.पू. में कबीलाई राज्यों की जगह क्षेत्रीय राज्य (महाजनपद) की स्थापना का प्रमाण साहित्यिक ग्रन्थों जैसे बौद्धग्रन्थ (अंगुत्तरनिकाय) तथा जैन ग्रन्थ (भगवीतय सूत्र) मिलता है।

बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में सोलह महाजनपदों का उल्लेख किया गया है। इस ग्रन्थ में दी गई सूची इस प्रकार है-काशीकोशलअंगमगधवज्जि या वृज्जि,मल्ल,चेदि या चेतियवत्स या वंशकुरुपांचालमत्स्य या मच्छशूरसेनअस्मक या अश्मकअवन्तिगान्धार और कम्बोज।

   महावस्तु में भी इस प्रकार की सूची मिलती है लेकिन इसमें गान्धार और कम्बोज के स्थान पर शिबि (पंजाब या राजपूताना) तथा दर्शाण (मध्य भारत) का उल्लेख किया गया है।

जैन ग्रन्थ (भगवीतय सूत्र) में भी सोलह राज्यों का जिक्र किया गया है। भगवतीसूत्र की सूची और अंगुत्तरनिकाय की सूची में कुछ अन्तर है। भगवतीसूत्र में जिन सोलह महाजनपदों का उल्लेख किया गया है  वे इस प्रकार है- अंग, बंगमगह (मगध)मलय,  मालवाअच्छवच्छ (वत्स)कोच्छ (कच्छ), लाढ (लाट या राधा)पाढ (पाण्ड्य या पौण्ड्र)वज्जिमोलि (मल्ल)काशीकोशलअवाह और सम्भुत्तरा (संहोत्रा)। दोनों सूचियों में अंगमगधवत्सवज्जिकाशीकोशल 06 महाजनपद समान रूप से उल्लिखित हैं। मालवा की पहचान अवन्ति से]मोलि की मल्ल से की गई है। बाकी महाजनपद नए है। ये राज्य सुदूर पूर्व और दक्षिण में स्थित थे।

                                    महाजनपद

उत्तर वैदिक युग में जनपद अब महाजनपद में बदल गए। 15 महाजनपद नर्मदा नदी से उत्तर की ओर तथा एक मात्र महाजनपद अश्मक नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित था।  बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय के अनुसार 16 महाजनपद थे]बौद्ध ग्रन्थ महावस्तु तथा जैनग्रन्थ भगवती सूत्र से भी 16 महाजनपदों की सूचना मिलती है]किन्तु महावस्तु में गान्धार और कम्बोज के बदले पंजाब में शिवा तथा मध्य भारत में दर्शन का उल्लेख है। उसी तरह भगवती सूत्र में बंग एवं मलय जनपदों का उल्लेख है। चुल्लनिद्धेश में 16 महाजनपदों का उल्लेख है। इसमें कम्बोज की जगह कलिंग क तथा गांधार की जगह योन का उल्लेख है।

काशी- उत्तर में वरुणा तथा दक्षिण में असि नदियों से घिरे वाराणसी]काशी की राजधानी थी। गुहिल जातक के अनुसार यह नगरी 12 योजन में फैली थी। आरम्भ में काशी सबसे शक्तिशाली राज्य था परन्तु बाद में उसने कोशल की शक्ति के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। कोशल के राजा कंस ने काशी को विजित कर अपने राज्य में मिला लिया। 23 वें जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ के पिता अश्वमेन काशी के राजा थे।

 

कोशल- वर्तमान अवध का क्षेत्र]आधुनिक फैजाबाद मण्डल का क्षेत्र]प्राचीन काल में कोशल के नाम से जाना जाता था। सरयू नदी कोशल को दो भागों में बाँटती थी। उत्तरी कोशल की आरम्भिक राजधानी श्रावस्ती थी जिसकी पहचान उत्तर प्रदेश के गोण्डा और बहराइच जिलों की सीमा पर सहेत महेत स्थान से की जाती है। बाद में राजधानी साकेत या अयोध्या हो गई। दक्षिण कोशल की राजधानी कुशावती थी। कोशल के राजा प्रसेनजीत ने अपनी बहन महाकोशला अथवा कोशला देवी का विवाह मगध के शासक बिम्बिसार से कर दिया एवं दहेज में काशी ग्राम दिया परन्तु अजातशत्रु के समय कोशल एवं मगध के बीच संघर्ष छिड़ गयाजिसका विवरण संयुक्तनिकाय के कोशल सूक्त में मिलता है]परन्तु प्रसेनजीत ने मगध से सन्धि कर ली एवं अपनी पुत्री वजीरा का विवाह अजातशत्रु के साथ विवाह कर दिया।

संयुक्तनिकाय से जानकारी मिलती है]कि प्रसेनजीत के पुत्र विडुढ़व या विधोवा ने मन्त्री दीर्घचारायण के साथ मिलकर प्रसेनजीत के विरुद्ध षड्यन्त्र रचा। प्रसेनजीत ने भागकर मगध में शरण लेनी चाही]किन्तु थकान के कारण राजगह के समीप उसकी मृत्यु हो गई। विधोवा मगध पर आक्रमण करने ही वाला था कि राप्ती नदी में बाढ़ आने के कारण विधोवा तथा उसकी सेना डूब गई। उसके बाद अजातशत्रु ने कोशल को मगध में मिला लिया।

 

अंग- वर्तमान भागलपुर तथा मुंगेर जिले का क्षेत्र। इसकी राजधानी चम्पा थी। महाभारत तथा पुराणों में चम्पा का प्राचीन नाम मालिनी मिलता है। दीर्घनिका के अनुसार महागोविन्द ने इस नगर के निर्माण की योजना प्रस्तुत की। बिम्बिसार ने अंग के शासक ब्रह्मदत्त को हराकर अंग को मगध में मिला लिया और अजातशत्रु को अंग का उपराजा नियुक्त किया।

 

वज्जि- यह आठ राज्यों का एक संघ था। इन आठ राज्यों के संघ में वैशाली लिच्छिवी. मिथिला के विदेह तथा कुण्डग्राम के ज्ञातृक प्रमुख थे। इनके अतिरिक्त अन्य 5 और थे जैसे उग्र भोगइक्ष्वाकुवज्जि एवं कौरव्य। पहले वज्जि राजतन्त्र थाबाद में गणतन्त्र स्थापित हुआ।

 

मल्ल-वज्जि की तरह यह भी एक संघ था]जिसमें पावा (पडरौना) तथा कुशीनारा (कसया) के मल्लों की शाखाएँ सम्मिलित थीं। मल्ल जनपद का क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश देवरिया जिला था। वज्जि संघ की भाँति यहाँ भी प्रारम्भ में राजतन्त्र था]जो बाद में गणतन्त्र में परिवर्तित हो गया। कुश जातक में ओक्काक को वहाँ का राज बताया गया है।

 

चेदि- चेदि महाजनपद की राजधानी सूक्तमती अथवा सोथीवती थी। इसका महत्त्वपूर्ण शासक शिशुपाल था]जिसकी चर्चा महाभारत में हुई है। जिसका वध कृष्ण द्वारा किया गया। चेतिय जातक में यहाँ के एक राजा का नाम 'उपचर' मिलता है।

 

वत्स-प्राचीन काल में आधुनिक इलाहाबाद तथा बाँदा के जिले वत्स महाजनपद के नाम से जाने जाते थे। इस महाजनपद की राजधानी इलाहाबाद के पास कौशाम्बी में थी। वत्स लोग वही कुरुजन थे जो हस्तिनापुर छोड़कर कौशाम्बी में आकर बस गए थे।

जैसे कि उत्खननों से पता चलता है ईसा पूर्व पाँचवीं सदी में राजधानी कौशाम्बी की मिट्टी से किलेबन्दी की गई थी। बौद्ध काल में यहाँ पौरव वंश का शासन था  जिसका शासक उदयन था। अवन्ति के शासक प्रद्योत की कन्या वासवदत्ता के साथ उदयन के विवाह होने के साथ ही अवन्ति एवं वत्स में चली आ रही शत्रुता समाप्त हो गई। इसी कहानी को आधार बनाकर भास ने स्वप्नवासवदत्तम् नाटक की रचना की। उदयन पहले जैन मतावलम्बी था बाद में बौद्ध भिक्षु पिण्डोला भारद्वाज के निर्देशन में बौद्ध हो गया। वत्स महाजनपद में ही घोषिताराम विहार है]जिसका निर्माण यहाँ के श्रेष्ठि घोषित ने किया था। कालान्तर में वत्स पर अवन्ति का शासन स्थापित हो गया।

कुरु-मेरठ]दिल्ली तथा थानेश्वर के भाग में कुरु महाजनपद अवस्थित था। महाभारत काल में हस्तिनापुर इसकी राजधानी थी। बौद्ध काल में यहाँ कौरव्य नामक शासक शासन करता था।

पांचाल-आधुनिक रुहेलखण्ड के बदायूँबरेली तथा फर्रुखाबाद के जिलों को मिलाकर पांचाल बना था। इसके दो भाग थे। उत्तरी पांचाल का राजधानी अहिच्छत्र तथा दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। 

मत्स्य-यह महाजनपद राजस्थान के जयपुर]अलवर तथा भरतपुर के अन्तर्गत था। इसकी राजधानी विराट नगर थी. जो विराट के द्वारा स्थापित था। 

शूरसेन- यह आधुनिक ब्रजमण्डल में स्थित था। इसकी राजधाना मथुरा थी। प्राचीन लेखकों ने इसे सूरसेनोई तथा उसकी राजधानी को मेथोरा कहा।  महाभारत तथा पुराण यदुवंश को यहाँ का शासक वंश बताते हैं। बौद्ध काल में यहाँ कस शासक अवन्तिपुत्र था। मज्झिमनिकाय के अनुसार अवन्तिपुत्र का जन्म अवन्ति नरेश प्रद्योत की कन्या से हुआ था।

गान्धार- वर्तमान में पेशावर तथा रावलपिण्डी जिलों में स्थित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। रामायण से जानकारी मिलती है कि भरत के पुत्र तक्ष ने इसकी स्थापना की थी। पुष्कलावती इसका दूसरा प्रमुख नगर था। तक्षशिला व्यापार एवं शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। (तक्षशिला में ही जीवक]चाणक्य तथा प्रसेनजीत ने शिक्षा पाई थी।) छठी सदी ई.पूर्व में यहाँ पुष्कासिरीन अथवा पुक्कुस शासन करता था। जिसका मगध के शासक विम्बिर के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था। पुक्कुस ने विम्बिसार के पास दूत भेजा था। कालान्तर में गान्धार पर हखाममिनी वंश के शासक डेरियस का अधिकार हो गया था। 

कम्बोज-यह दक्षिण-पश्चिम कश्मीर तथा अफगानिस्तान के भाग में स्थित था। इसकी राजधानी राजपुर या हाटक थी। कालान्तर में यहाँ राजतन्त्र के स्थान पर संघ राज्य स्थापित हो गया। कौटिल्य या चाणक्य ने कम्बोजों को वार्ताशस्त्रोपजीवी कहा है]अर्थात् कृषिपशुपालनव्यापार तथा शास्त्र द्वारा जीविका चलाने वाले। कम्बोज अपने घोड़ों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। चन्द्रवर्द्धन तथा सुदक्षिण यहाँ के दो प्रमुख शासक हुए। प्रारम्भ में यहाँ राजतन्त्र था]बाद में गणतन्त्र स्थापित हो गया।

महाजनपद एवं राजधानी

क्र.सं. महाजनपद राजधानी
1.कोशल श्रावस्ती/अयोध्या
2.काशी वाराणसी
3.अंग चम्पा
4.मगध गिरिव्रज(राजगृह)
5.वज्जि विदेह एवं मिथिला
6.मल्ल कुशीनारा/पावा
7.चेदि सुक्ति (सुक्तिमती)
8.वत्स कौशाम्बी
9.कुरु इन्द्रप्रस्थ
10.पांचाल उत्तरी पांचाल (अहिच्छत्र)] दक्षिण पांचाल (काम्पिल्य)
11.मत्स्य विराट नगर
12.शूरसेन मथुरा
13.अश्मक पोतन या पोटिल
14.अवन्ति उत्तरी अवन्ति(उज्जयनी) एवं दक्षिणी अवन्ति (महिष्मती)
15.गान्धार तक्षशिला
16.कम्बोज राजपुर या हाटक

अवन्ति-यह पश्चिम तथा मध्य मालवा के क्षेत्र में बसा हुआ था]इसके दो भाग थे। उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन तथा दक्षिणी भाग की राजधानी महिष्मती थी। वेत्रवती नदी इन दोनों के बीच में बहती थी। गौतम बुद्ध के समय यहाँ का राजा प्रद्योत था। महावग्गजातक में प्रद्योत को उसकी कठोर नीति के कारण चण्डप्रद्योत कहा जाता था। मगध के समान हाथी की प्राप्ति तथा विकसित लौह प्रौद्योगिकी के कारण यह भी काफी शक्तिशाली था। प्रद्योत के पाण्डु रोग से ग्रसित होने पर बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उपचार हेतु भेजा। परिशिष्टपर्वन से हमें जानकारी होती है कि प्रद्योत के पुत्र पालक ने वत्स पर आक्रमण कर उसे अवन्ति में मिला लिया। बाद में अवन्ति को शिशुनाग में मगध में मिला लिया।

Sunday, 31 May 2020

प्राचीन भारतीय मुद्राएं व सिक्के

प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में सिक्कों की भी अहम भूमिका है। सिक्कों के प्रचलन द्वारा हम न सिर्फ व्यापार और वाणिज्यिक गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करते हैं, बल्कि उन सिक्कों की बनावट, उसमें प्रयोग किए गए धातु और प्रयोग की गई तकनीक के आधार पर आर्थिक स्थिति और तकनीकी ज्ञान के स्तर को भी जानते हैं। सिक्के यदि बड़ी संख्या में एक स्थान पर मिलें, तो यह अनुमान लगाया जाता है कि सिक्कों का प्राप्ति-स्थान उस शासक के राज्य का भाग था। यदि सिक्कों पर कोई तिथि उत्कीर्ण हो तो उसके राज्यकाल को ज्ञात किया जा सकता है। सिक्कों के पृष्ठ भाग पर जिस देवता की आकृति बनी हो उससे शासक के धार्मिक विचारों के बारे में पता चलता है।

             वैदिक काल में सिक्कों की अनुपस्थिति थी, 'निष्क' और 'शतमान' आभूषण थे न कि नियमित सिक्के इसे ही वैदिक काल में विनिमय का साधन के रूप में  प्रयोग करते थे । वैदिक काल में मुख्य रूप से अभी वस्तु विनिमय प्रणाली  प्रचलित नहीं थी। हालाकि कुछ सिक्कों की चर्चा मिलती है पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि ये नियमित सिक्के नहीं थे। सिक्के के रूप में निष्क, शतमान और कृष्णल का उपयोग होता था। निष्क और शतमान 320 रत्ती का होता था। कृष्णल 1 रत्ती या 1.8 ग्रेन का होता था। पाद भी सम्भवतः सिक्का ही था। रत्तिका तथा गुंजा तौल की इकाई थी। तथापि उत्तर वैदिक काल में खास भार, आकृति और मूल्य के सिक्कों का कोई चलन नहीं मिलता। शतपथ ब्राह्मण में महाजनी एवं सूदखोरी की भी चर्चा हुई है। महाजन को कुसीदिन कहा गया है। 

         सिक्कों की शुद्धता से किसी राजवंश के समय की आर्थिक स्थिति के बारे में   जानकारी  प्राप्त की जा सकती है। उदाहरणाथ; सबसे पहला सोने का सिक्का इण्डो-ग्रीक शासकों ने जारी किया, सबसे शुद्ध सोने का सिक्का कुषाणों  ने और सबसे बड़ी मात्रा में सोने के सिक्के गुप्त शासकों ने जारी किए। लेकिन  गुप्तों के सिक्कों में आई खोट से इस बात का संकेत मिलता है कि उनकी  अर्थव्यवस्था पतनशील थी। दूसरी ओर सोने का प्रयोग सिर्फ बड़े लेन-देन के लिए किया जाता था, जबकि आम लेन-देन में कौड़ियों का प्रयोग  किया जाता है।       
                    
        मौर्योत्तर काल में जब हिन्द यूनानी शासको ने भारत पर अधिकार जमाया, तो उनके द्वारा लेखों वाले सिक्के जारी किए गए। इन सिक्कों पर लेखों के अतिरिक्त इसे जारी करने वाले शासकों की आकृति भी होती थी। हिन्द-यूनानी शासकों के समान  शक, पहृलव व कुषाण शासक भारत आए, उन्होंने भी हिन्द यूनानी शासकों के अनुरूप् सिक्के चलाए, तदुपरान्त भारतीय शासकों ने भी ऐसे ही सिक्के चलाए। गुप्तवंश का इतिहास अभिलेखों के आधार पर लिखा गया है, तथापि सिक्कों से उनकी उपलब्धि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। गुप्तवंश के पतन के बाद भारत के इतिहास को जानने के लिए तत्कालीन सिक्के बहुत कम उपयोगी सिद्ध हुए हैं, क्योंकि हर्ष जैसे प्रसिद्ध शासकों के तथा चालुक्य, राष्ट्रकूट, प्रतिहार और पालवंश के शासकों के बहुत कम सिक्के मिले हैं।

             सिक्कों का प्रचलन आहत सिक्का/पंचमार्क, भारत का प्राचीनतम उपलब्ध सिक्का है। सबसे पहले यह तक्षशिला से प्राप्त हुआ है, जो तक्षशिला के भिरदह क्षेत्र से मिला। यह गान्धार क्षेत्र के अन्तर्गत आता है, अत: इसे गान्धारण सिक्का भी कहते हैं। सूदूर दक्षिण भारत को छोड़कर यह सभी जगह से मिला। पहाड,  नन्द वंश का सिक्का तथा  अर्द्धचन्द्र, चन्द्रगुप्त मौर्य के सिक्के है। भारत का पहला ज्ञात सिक्का पंचमार्क सिक्का है   पंचमार्क सिक्कें को ठप्पे की रीति से तैयार कर ऊपर से इसे आहत या चाह्नत किया गया है। इस कारण ही इसे पंचमार्क या आहत सिक्का कहते हैं। इस सिक्के पर शासकीय आकृति नहीं है, परन्तु ज्यामितीय आकृतियाँ, सूर्य, चन्द्र, वेदिका, विविध पशु, अस्त्र-शस्त्र आदि की आकृति है। आकृति से ही शासक की पहचान की जाती है। किसी भी देवी-देवता की मानव रूप में आकृति नहीं है।  प्रारम्भ में आहत सिक्का चाँदी से बनना प्रारम्भ हुआ परन्तु बाद में ताँबे के भी बनने लगे। आहत सिक्के पर तिथि दर्ज नहीं है। यह सिक्का सर्वप्रथम आर्थिक संगठनों द्वारा चलाया गया। यह दो शताब्दी तक चलता रहा। छठी सदी ई.पू. से चौथी सदी ई.पू. तक। इसके बाद में नन्द शासकों के समय में प्रथम मानकीरण का प्रयास हुआ, अर्थात् आकार तथा वजन में निश्चितता का प्रयास। (गोलखपुर में जहाँ पर प्राचीन पाटलिपुत्र नगर बसा था, वहाँ सिक्कों का ढेर मिला, जो नन्द वंश से सम्बन्धित है।)  प्रमुख सिक्के कर्षापण-चाँदी का सिक्का (पालि में कहापन)। महास्थान लेख, भरहुत वेदिका लेख एवं नानाघाट लेख में उल्लेख (सबसे विस्तृत चर्चा नानाघाट अभिलेख में। महास्थान लेख में इसकी तुलना में काकणि पर अधिक जोर है।) शतमान-चाँदी का सिक्का = 96 रत्ती (11.1 ग्राम) इसके छोटे इकाई भी हैं,  अर्द्धशतमान- 1/2 शतमान, पाद शतमान = 1/4 शतमान, अर्द्धपादशतमान = 1/8 शतमान।  पण, धरण-चाँदी का सिक्का,  माषक सिक्का-पहले चाँदी का और बाद में ताँबे का काकिणी एवं अर्द्धकाकिणी -तॉबे का सुवर्ण, पाद-सोने का सिक्का है। 

मौर्यकालीन सिक्के
पहाड़ी काक चित्र युक्त सिक्कें - नन्द वंश से,  पहाड़ी एवं अर्द्धचन्द्र युक्त सिक्कें - चन्द्रगुप्त मौर्य तथा   हाथी, घोड़ा एवं वृषभ - अशोक का है।  पतंजलि एवं कात्यायन भी काकिणी एवं अर्द्धकाकिणी का उल्लेख करते हैं। अर्थशास्त्र में सिक्कों के लिए रूप शब्द का प्रयोग हुआ। मुद्रा से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थ का नाम रूपसूत्र है। इस समय टकसाल का अध्यक्ष लक्षणाध्यक्ष था। सिक्कों को जाँचने एवं परखने का कार्य रूपदर्शक करता था।
मौर्यकालीन सिक्के शतमान - चाँदी का सिक्का,  कर्षापण, पण, धरण - चाँदी का सिक्का, मासक- ताँबा का सिक्का तथा  काकिणी, अर्द्धकाकिणी - ताँबा का सिक्का होता था।

गुप्तकालीन सिक्के
गुप्तकालीन सिक्के तीन प्रमुख धातुओं में मिलते हैं। प्रथम दो शासक श्री गुप्त एवं घटोत्कच के कोई सिक्के प्राप्त नहीं हैं। गुप्तकालीन सिक्कों का मिलना चन्द्रगुप्त प्रथम के काल से प्रारम्भ होता है। रामगुप्त जिसकी ऐतिहासिकता विवादित थी, उसके छह सिक्के भिलसा एवं एरण से प्राप्त हुए हैं। चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त एवं रामगुप्त ने चाँदी के सिक्के जारी नहीं किए इसका कारण पश्चिम भारत में शक शासन का होना है। गुप्तकाल में सर्वप्रथम चाँदी का सिक्का जारी करने वाला शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था। प्राचीन भारत में सबसे अधिक सोने के सिक्के गुप्तों ने ही जारी किए थे, जबकि सर्वप्रथम सोने के सिक्के जारी करने का श्रेय इण्डोग्रीक शासकों को जाता है। सर्वाधिक शुद्ध सोने के सिक्के कुषाणों ने जारी किए। गुप्तकालीन सिक्कों के कुल 16 ढेर प्राप्त हुए हैं जिनमें सबसे प्रमुख तथा बड़ा ढेर भरतपुर के निकट बयाना का ढेर है। गुप्तकाल में सिक्कों की शुद्धता में उत्तरोत्तर में कमी होती चली गई तथा उसका वजन बढ़ता चला गया। गुप्तकालीन सिक्कों पर प्राप्त लेख में भाषा संस्कृत एवं लिपि ब्राह्मी है। गुप्तकालीन सिक्कों पर कई देवताओं के चित्र प्राप्त हुए हैं। चन्द्रगुप्त प्रथम ने विविध प्रकार के सोने के सिक्के चलाए। उसने अपने सिक्के पर लिच्छिवी राजकुमारी कुमारदेवी के सिक्के बनवाए।

समुद्रगुप्त
समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर यूप बना है और अश्वमेध पराक्रमः शब्द खुदे हैं। इससे इस बात की पुष्टि होती है की इसने अश्वमेध यज्ञ किया था। समुद्रगुप्त ने  छह प्रकार की स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन करवाया । 

1. गरुड़ प्रकार इसके मुख पर अलंकृत वेष-भूषा में राजा की आकृति, गरुड़ध्वज, उसका नाम तथा मुद्रालेख सैकड़ों युद्धों को जीतने तथा रिपुओं का मर्दन करने वाला अजेय राजा स्वर्ग को जीतता है, (समरशत वितत विजयोजितरिपरजितो दिवं जपति) उत्कीर्ण मिलता है। पृष्ठ भाग पर  सिंहासनासीन देवी के  साथ 'पराक्रम' अंकित है। इस प्रकार के सिक्के नागवंशी राजाओं के ऊपर उसकी विजय के संकेत देते है। 

2. धनुर्धारी प्रकार इनके मुख भाग पर सम्राट धनुष बाण लिए हुए खड़ा है तथा मुद्रालेख 'अजेय राजा पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मा द्वारा स्वर्गको जीतता है' (अप्रतिरथो विजित्य क्षितिं सुचरितेः दिव जयति) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि 'अप्रतिरथः' अंकित है।।

 3. परशु प्रकार मुख भाग पर बाए हाथ में परशु धारण किए हुए राजा का चित्र तथा मुद्रालेख 'कृतान्त परशु राजा राजाओं का विजेता तथा अजेय है  (कृतान्तपरशुर्जयतयजित राजजेताजित:) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर देवी की आकृति तथा उसकी उपाधि 'कृतान्त पशु' अंकित है। 

4. अश्वमेध प्रकार ये सिक्के समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ किए जाने के प्रमाण है। इनके मुख भाग पर यज्ञ यूप में बँधे हुए घोड़े का चित्र तथा मुद्रालेख 'राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठन कर स्वर्गलोग की विजय करता है' (राजाधिराजो पृथ्वी विजिज्य दिवं जयत्या गृहीतवाजिमेधः) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर राजमहिषी (दत्तदेवी) की आकृति के साथ-साथ 'अश्वमेध पराक्रम: अंकित है। 

5. व्याघ्रहनन प्रकार मुख भाग पर धनुष बाण से व्याघ्र का आखेट करते हुए राजा की आकृति तथा उसकी उपाधि 'व्याघ्रपराक्रमः' अंकित है। पृष्ठ भाग पर मकरवाहिनी गंगा की आकृति के साथ-साथ 'राजा समद्रगुप्त" उत्कीर्ण है। इस प्रकार के सिक्कों से जहाँ एक ओर उसका आखटे-प्रेम सूचित होता है, वहीं दूसरी ओर गंगा-घाटी की विजय भी इंगित होती है।

6. वीणावादन प्रकार मुख भाग पर बीणा बजाते हुए राजा की आकृति तथा मुद्रालेख 'महाराजाधिराजश्री समुद्रगुप्त उत्कीर्ण है। पटनाग पर हाथ में कार्नकोपिया लिए हुए लक्ष्मी की आकृति अंकित है। इस प्रकार के सिक्कों से उसका संगीत-प्रेम सूचित होता है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय
चन्द्रगुप्त की स्वर्ण मुद्राओं का विवरण इस प्रकार है।
1. धनुर्धारी प्रकार इस प्रकार के सिक्के सबसे अधिक मिलते हैं। इसके मुख भाग पर धनुष-बाण लिए हुए राजा की मुर्ति, गरुड़ध्यन तथा । मुद्रालेख 'देव श्रीमहाराजाधिराश्रीचन्द्रगुप्तः' अंकित है। पृष्ठ भाग पर बैठी हुई लक्ष्मी के साथ-साथ राजा की उपाधि 'श्रीविक्रम उत्कीर्ण मिलती है।

2. छत्रधारी प्रकार  इसके अन्तर्गत मुख्यतः दो प्रकार के सिक्के सम्मिलित है। मुख-भाग पर आहुति डालते हुए राजा खड़ा है। वह अपना बाँया हाथ तलवार की मुठिया पर रखे हुए है। राजा के पीछे एक बौना नौकर उसके ऊपर छत्र ताने हुए खड़ा है। इस ओर दो प्रकार के लेख मिलते हैं-महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तः तथा 'क्षितिमवजित्य सुचरिते. दिवं जयति विक्रमादित्यः' (महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पृथ्वी को जीतकर उत्तम कमों द्वारा स्वर्ग को जीतता है)। पृष्ठ भाग पर कमरतके ऊपर लक्ष्मी खड़ी हुई है तथा मद्रालेख 'विक्रमादित्यः' उत्कीर्ण है।

 3. पर्यङ्क प्रकार इस प्रकार के सिक्के बहुत कम प्राप्त हैं। इनके मुख भाग पर राजा वस्त्र एवं आभूषण धारण किए हुए पलंग पर बैठा है। उसके दाएँ हाथ पर कमल है तथा बाँया हाथ पलंग पर टिका हआ है। मुद्रालेख 'देवश्रीमहाराजाधिराज- श्रीचन्द्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य' तथा पलंग के नीचे 'रूपाकृति' उत्कीर्ण है। कुछ सिक्कों के मुख भाग पर उसकी उपाधि 'परमभागवत' भी प्राप्त है। रूपाकृति' उसके शारीरिक एवं नैतिक गुणों का सूचक है। पृष्ठ भाग पर सिंहासन पर बैठी हुई लक्ष्मी का चित्र तथा मुद्रालेख 'श्रीविक्रम' उत्कीर्ण है।

4. सिंह-निहन्ता प्रकार इस प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर सिंह कोधनुष-बाण अथवा कृपाण से मारते हुए राजा की आकृति उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर सिंह पर बैठी हुई देवी की आकृति विभिन्न दशाओं में खुदी हुई है। इस प्रकार के सिक्के कई वर्ग के है जिन पर भिन्न-भिन्न मद्रालेख मिलते हैं। जैसे-नरेन्द्रचन्द्र प्रथितदिव जयत्यजेयो भूवि सिंह-विक्रम (नरेन्द्र चन्द्र, पृथ्वी का अजेय राजा सिंह विक्रम स्वर्ग को जीतता है। इसके अतिरिक्त कुछ मुद्राओं पर 'देवश्री महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्त' अथवा 'महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्त' भी अंकित है। इस प्रकार के सिक्कों से अन्य बातों के साथ-साथ उसकी गुजरात और काठियावाड़ के शकों की विजयभी सूचित होती है। 

5. अश्वारोही प्रकार इसके मुख भाग पर घोड़े पर सवार राजा की आकृति तथा मुद्रालेख 'परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त' अंकित है। पृष्ठ भाग में बैठी हुई देवी साथ-साथ 'अजितविक्रम' खुदा हुआ है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सर्वप्रथम चांदी के सिक्के जारी  मॉडल को अपनाया। चाँदी का सिक्का 132 ग्रेन का होता था। गुप्त शासक चन्द्रगुप्त ॥ के चांदी के सिक्कों से यह अनुमान लगाया गया है कि उसने शकों को पराजित किया होगा क्योंकि उस समय चाँदी के सिक्के केवल पश्चिमी भारत में ही चलते थे। गुप्तकालीन सिक्के बहुत कलात्मक हैं। इन सिक्कों में तत्कालीन जनता की साहित्य और कला में रुचि की झलक स्पष्ट दष्टिगोचर होती है। यद्यपि मुद्राओं से सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा सामाजिक महत्त्व की अनेक सूचनाएँ मिलती हैं 

कुमारगुप्त  प्रथम ने सर्वाधिक 14 प्रकार का सिक्के चलवाए।
कुमारगुप्त के सिक्कों पर मयूर को खिलाते हुए राजा की आकृति है। इसके सिक्के पर  कार्तिकेय को दिखाया गया है।

स्कन्दगुप्त ने स्वर्ण सिक्के के दीनार मॉडल को छोड़ दिया। उसके सिक्के सर्वाधिक वजन के हैं किन्तु उसमें स्वर्ण की मात्रा न्यूनतम है। इसने शक मॉडल को छोड़कर कार्षापण मॉडल को अपनाया। परवर्तीकालीन या मुद्राओं का वजन क्रमश: बढ़ता गया परन्तु स्वर्ण की मात्रा घटती गई। गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों में दीनार, निष्क आदि प्रमुख हैं। दीनार सबसे अधिक महत्त्व का है, इससे तमाम महँगी चीजें खरीदी जा  सकती थी। इसका मानक वजन 146 ग्रेन है किन्तु गुप्तकाल में इसका वजन 240 ग्रेन था । (दीनार मौर्योत्तर काल से ही प्रचलन में है)। शतमान, पण, कार्षापण चाँदी के सिक्के हैं। इनका जिक्र साहित्य में मिलता है। रूपक नामक चाँदी का सिक्का मुख्य रूप से गुप्तकाल से ही प्रारम्भ होता है। मासक एवं काकिणी ताँबे के सिक्के थे। फाह्यान कहता है कि स्थानीय बाजार एवं छोटे सामान की खरीद में कौड़ियों का इस्तेमाल होता था। गुप्तों के समय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चाँदी का संकट था, किन्तु अपेक्षाकृत सोना महँगा था।

 हूणों के सिक्के
गुप्तोत्तर काल में व्यापार-वाणिज्य का पतन होने लगा अतः सिक्कों की संख्या बिल्कुल कम मिलती है। गुप्तोत्तर काल में सर्वाधिक सिक्के हुणों के ही प्राप्त हुए हैं। मध्य एशिया के प्रभाव वाले हेफ्थलाइट सिक्का (रजत और ताम्र के), पश्चिम एशिया के प्रभाव वाले सासैनियन सिक्का (रजत और ताम्र के) उत्तर-पश्चिम प्रभाव वाले तोरमाण सिक्के (केवल ताम्र के)। हूणों का विशिष्ट सिक्का गधैया सिक्का है। कुछ जगह तो 19वीं सदी तक चलते रहे जहाँ इसे ब्रिटिश शासन ने बन्द करवाया। सिक्के के मूल्य भाग पर मनुष्य का व्यंग्य चित्र तथा पृष्ठ भाग पर यज्ञवेदी की आकृति है। (यज्ञवेदी को गुजरात तथा सिन्धु में गध्या कहते हैं इसी शब्द का विकृत रूप गधैया है।) उत्तर प्रदेश और बिहार में 19वीं सदी तक इसे दबुआ नाम से चलाया जाता रहा।

अन्य सिक्के
डैरेक सिग्लोई नामक सिक्का दारा या डेरियस (हखामनी शासक) के द्वारा चलाया गया। राष्ट्रकूट शासकों के द्वारा गद्यान एवं द्रमय नामक सिक्के  जारी किए गए। पल्लव शासकों के सिक्कों पर सिंह पर बैठा हुआ मानव की आकृति है। कुषाण शासक वासुदेव के सिक्के पर शिव और हाथी के चित्र तथा गजासुर का वध करते हुए शिव का चित्रण है। दक्षिण भारत में सर्वप्रथम स्वर्ण मुद्राएँ गंग कदम्बों ने चलाए जिन्हें पद्मटंक सिक्के (सोने के आभूषण में छेद किया हुआ) कहा जाता है।

चोल काल सिक्के
चोल काल में मानक स्वर्ण सिक्का कलंजु या कल्याणजु था। कलंज 20 मणजारी के बराबर होता था। चोल काल में काशु भी एक स्वर्ण सिक्का था जो कलंजु के आधे के बराबर होता था। (1 काशु 10 मणजारी)। सबसे छोटा सिक्का माँडया था। चाँदी का एकमात्र सिक्का तीरतम् था। उत्तम चोल के सिक्कों को मादई कहा जाता था। इसके सिक्कों पर मदुरान्तक विरुद भी मिलता है। चोल सिक्कों के ढेर 'धवलेश्वरम्' नामक स्थल से मिले हैं। राजाधिराज प्रथम के कुछ सिक्के लंका से प्राप्त हुए हैं जिससे वहाँ उसके अधिकार की पुष्टि होती है। किन्तु निचले स्तर पर छोटे लेन-देन में वस्तु विनिमय प्रणाली भी प्रचलित थी। चोल काल में विशेषत: ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के केन्द्र मन्दिर होते थे। मन्दिर के लिए नियमित आय का होना आवश्यक था अत: मन्दिर व्यापारिक पूँजी लगाते थे। मन्दिर सूद पर रुपये भी उधार देते थे। 
              
          मुद्रा प्रणाली का आगमन मानव की आर्थिक प्रगति का एक महत्त्वपूर्ण चरण है और मुद्राशास्त्र का प्रयोग मुख्यत: आर्थिक इतिहास के गठन के लिए होना चाहिए, जो दुर्भाग्य से भारत में हो नहीं रहा। सिक्कों का भिन्न-भिन्न धातुओं में पाया जाना, धातुओं की मात्रा का निर्धारण, सिक्कों के भार-मानक का निर्धारण, सिक्कों की प्रधानता एवं अनुपस्थिति ये सभी प्राचीन भारत के आर्थिक इतिहास लेखन को नई दिशा प्रदान कर सकते हैं और इस दिशा में डॉ. कौशाम्बी ने आहत मुद्राओं का जो अध्ययन प्रस्तुत किया है, वह विशेष महत्व रखता है। 
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